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फिर मत कहियेगा कि वे खलिहर (विदाउट बिजनेस) हैं

AWARA
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राघवेन्द्र दुबे
कहीं के भी हों ऐसे लोग, मुझे बहुत अच्छे लगते हैं- जो अपने और किसी के बीच अपरिचय की दीवार नहीं रहने देते। और अगर परिचय हो तो उसे आत्मीयता की हद तक सहेजते हैं। इन्हीं विशिष्टताओं की वजह से मुझे अपना पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार बहुत आकृष्ट करता है। लोग आपको अकेला नहीं रहने देंगे। कभी- कभी आपकी दिनचर्या में झांक कर आपसे बहुत सहज पूछ- ताछ (जो कुछ अभिजनों को नॉनसेंस और इसीलिए नागवार भी लगेगी) दरअसल आपकी अस्तित्वगत पहचान बनाये रखने की उनकी एक बड़ी सामाजिक पहल होती है।
मेरे एक मित्र भुनभुना रहे थे- ‘आप सब्जी खरीदने भी निकलिए, वो दिखे तो आप से यही पूछ लेंगे कि दुकानदार ने कद्दू क्या भाव दिया? कुछ नहीं तो यही- कहिये खरीददारी हो रही है क्या? जाने कैसे लोग हैं।
पहले तो यह बता दूं कि मेरे यह मित्र बहुत दिनों तक वाराणसी के अस्सी से लेकर दिल्ली तक कभी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा (लालू जी भाजप्पा कहते हैं) के एक थिंक टैंक के खास मित्र रहे हैं। उन्हें कालजयी कवियों की श्रेणी में बस दो नाम ही पसंद या याद हैं- पहला हीरानंद सच्चिदानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और दूसरा हरिवंश राय ‘ बच्चन’। यह भी बता दूं कि सड़क पर बहुत धूल हो या न हो, वे मेरे साथ आवास से दफ्तर आते हुए नाक पर रूमाल रख कर चलने के तकरीबन आदती हो चुके हैं और बगल से गुजरे रिक्शे की हवा भी छू जाये तो चौंक कर अपनी पतलून देखने लगते हैं- कोई दाग न लग गया हो। अपने अखबार में बहुत व्यवस्थित कंटेंट इंजीनियर माने जाते हैं। अनगढ़ और आवेग में आयी अभिव्यक्तियों (कापियों) का वह क्या करते होंगे मैं नहीं जानता। लेकिन क्वालिटी से ज्यादा केवल प्रक्रिया और व्यवस्था (प्रासेज और सिस्टम) में यकीन करने वाले लोगों की नजर में भारी बुद्धिजीवी हैं। मेरे कुछ साथी उन्हें बुद्धि की बटलोई तक कहते हैं।
यह आलेख उन्हीं के एक ‘इरीटेशन’ का नतीजा है। याद आता है एक नाटक का दृश्य, जिसमें दो लोग रोड डिवाइडर पर एक दूसरे की ओर पीठ करके बैठे हैं। उनमें किसी तरह का कोई संवाद नहीं है और वे अलग- अलग किसी फरिश्ते के इंतजार में आसमान ताक रहे हैं। उनमें से एक, दूसरे की आंख में हल्का सा इसलिए कोंच देता है कि किसी तरह का संवाद तो बन सके, दोनों के बीच।
यह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का वक्त था और विध्वंस का दृश्य लोगों के दिमाग में ठहर सा गया था। अस्तित्वगत फड़फड़ाहट बहुत दारुण दौर में थी, अलगाव- चुप्पी और अपरिचय का असर सोखकर। इकाई रूप में व्यक्ति अकेली और ठोस सच्चाई नहीं रह गया था। वह तो खुद से भी कटा हुआ था इसलिए आत्म की संभावनाओं को चरितार्थ कर पाने में भी अक्षम था। यही वह दौर था जब विभाजित मन के आदमी की कुंठा और संत्रास विश्व साहित्य का केन्द्रीय मुद्दा बना (अल्वेयर कामू को याद करते हुए)। इसी का असर लेकर महानगरीय संत्रास और अकेले (एलीनिएटेड) होते जाने की पीड़ा के रेखांकन के लिए राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर की विधा, नयी कहानी की शक्ल में अपने वजूद में आयी। इन कहानियों से आप जान सकते हैं कि जड़ीभूत संवाद ने सारे रिश्तों, अनुभूतियों और मानवीय गरिमा तक को किस तरह घटाना (रिडयूस करना) शुरू कर दिया था- आदमी केवल वह तादाद हो गया जिसे बसें या लोकल ट्रेने निगल- उगल रही थीं और काम की जगह से घर लौटने तक में वह अपने शरीर का एक- एक हिस्सा यात्रा के अलग- अलग जरियों में भूल चुका होता था और अन्तत: बिना चेहरे का होता गया।
1975 के आपातकाल के बाद तो तकरीबन हर शहर से कॉफी हाउस खत्म ही हो गये। यह जनतंत्र की बहुत शुरूआती और आवश्यक निकाय पर भारी हमला था। यह भी बातचीत का दौर खत्म करने की वह खतरनाक कोशिश थी – जिसे बाद में बाजार ने अपने एजेंडे के तौर पर पूरा किया। दरअसल वैश्वीकरण चाहे जितने झिलमिले आकर्षण का हो, उसका भविष्य समाजगत बोध और उससे जुड़ी संस्थाओं को उखाड़ कर ही है। उसकी यही नीयत यूनिफा‌र्म्ड है जिसने औसत आदमी के अपने मनोजगत से भी उखड़ जाने का खतरा पैदा कर दिया है। जुजे सारामागु के उपन्यास ‘द केव’ पर कभी चर्चा चल रही थी अपने जनेवी ( जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र रहे और नामवर सिंह जी के चेला) सुविज्ञ दुबे से। – यहां शापिंग सेंटर और कुम्हार के बीच भिडंत होती है। ठीक उसी तरह जैसे कभी ब्लेड और हज्जाम के बीच या टमटम और लारियों के बीच अपने यहां भी हुई होगी। सेंटर जीत जाता है और उसकी घोषणा है- हम आपको वह हर चीज बेचेंगे जिसकी आपको जरूरत है। लेकिन हम चाहते हैं कि आप को उन्हीं चीजों की जरूरत हो जिन्हें हम बेचना चाहते हैं। अब यह दौर उसी बाजार के आधिपत्य का है। और 1992 की वाशिंगटन आम सहमति ने तो सांस्कृतिक- सामाजिक स्वायत्तता का पूरी दुनिया का ग्रामर ही बदल दिया। बाजार के सामने पूरी दुनिया बस उपभोक्ता है। यही विश्वग्राम का एकरूप चेहरा है। इस बाजार का संक्रमण अब कस्बे और गांवों तक हो चुका है और उसकी मंशा पूरी दुनिया के ‘जन’ को केवल कन्ज्यूमर में बदल देने की है- जहां अलग से न कोई राघवेन्द्र है न कुमार दिनेश। पूरी जन तादाद केवल कृतज्ञ उपभोक्ता ही बनी रहे इसके लिए आपसी संवाद खत्म कराना बहुत जरूरी हो गया। किसे फिक्र थी असामाजिक मुद्रा वाले इस विकास के दौर में दक्षिण अमेरिका में नशीली दवा तैयार करने के लिए कोकेन के पत्तों को रौंदते हुए अपनी एड़ी का मांस तक गला चुके मजदूरों की या किसे फिक्र है बिहार में पिछली बाढ़ से विस्थापित लोगों की। क्या मंगल ग्रह पर पहुंचना एक करोड़ अफ्रीकियों को भूख से न मरने देने के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण था । भारत में भी जाने किसे चाहिये फ्लाई ओवर और माल्स- सुविज्ञ ने अभी- अभी अरुंधती रॉय का एक लेख पढ़ाया है, उसे धन्यवाद।
जाहिर है हमारी दुनिया में एक दूसरे की पहचान बनाती कोई पूछ-ताछ जब पूरी तरह खत्म हो जायेगी, हम एक दूसरे से बात नहीं करेंगे तभी किसी माल में एक्सक्लेटर पर चढ़ी उपभोक्ताओं की भीड़ में बदल सकेंगे, जो बस विज्ञापनों के रिमोट से चलती है। ऐसी स्थिति में अगर कोई बाजार में आपको टोकता है तो पक्का जानिये यह संवाद की न केवल पहल है बल्कि उस गुंडा दौर की मुखालफत भी है जो आपका वजूद ही चाट जाने वाला है। कभी किसी टोकने वाले को खलिहर न कहिये। उन्हीं लोगों की वजह से शायद हम आज भी स्पंदित हैं। ऐसी ही पूछ- ताछ और बातचीत अपने- अपने सपनों के स्तर पर जीने और जनतंत्र की संभावनाएं बचा रखी हैं- समझे न कुमार दिनेश जी!
याद आता है जब मित्र रवीन्द्र ओझा लखनऊ से अमर उजाला में नौकरी करने जालंधर चले गये थे, रायल होटल के आसपास के मजदूर और ढाबे वाले तक उन्हें कितने स्नेह से याद करते थे। हाशिये पर के लोगों से भी बहुत आत्मीय संवाद बना सकने की अपने ओझा की आदत को सलाम। शायद इसीलिए उसके पास जीवन के संदर्भ और कंटेंट किसी भी स्थापित पत्रकार से बहुत ज्यादा हैं। सुविज्ञ के पास भी, जो शहीद चन्द्रशेखर ‘चन्दू'( जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में, तब का चेग्वेआरा) का भरोसे वाला मित्र रहा है।

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