- 3 Posts
- 16 Comments
राघवेन्द्र दुबे
बात 2001 की है। उन दिनों मैं कोलकाता में ‘तारा’ रीजनल चैनल पर हिन्दी न्यूज बुलेटिन के लिए बतौर न्यूज एडिटर काम कर रहा था। जैसा कि मैंने पहले लिखा भी है यहीं से मेरी वाम दीक्षा भी शुरू हुई और जनेश्वर मिश्र या किशन पटनायक से मिले राजनीतिक प्रशिक्षण पर अब सुर्ख असर पड़ने लगा था। उन्हीं दिनों टाइम्स ऑफ इण्डिया के पहले पन्ने पर एक लंगर राजनीतिक चर्चा ( एंकर स्टोरी) इस आशय की छपी थी कि -नाऊ सपा हैज बिकम पार्टी आफ थ्री ए- अंबानी, अमिताभ एंड अमर।
उसके छह माह बाद ही एक काम के सिलसिले में दिल्ली जाना हुआ और यह अखबार मेरे बैग में था। दिल्ली में रहने के दौरान ही एक शाम फुर्सत मिलने पर जनेश्वर जी के यहां चला गया। अखबार भी साथ लेता गया और खबर दिखाकर मैंने उनसे कहा था- ‘अपनी पार्टी में आप अब अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। विचार और इतिहास की विदाई के डंके वाले इस दौर में भी, राजनीतिक मंगलाचरण के लिए ही सही- और इसलिए भी कि अपने देश में राजनीतिक प्रक्रिया और विभिन्न समाजों का राजनीतिकरण बाकी है- दर्शन का घटश्राद्ध नहीं किया जा सकता। बस इसीलिए आप जैसे लोग सजावटी सामान की तरह सहेज लिए गये हैं। देखिये ना, वैचारिक शुचिता के पक्षधर (प्यूरिटंस) चाहे वाम दल हो या मध्यमार्गी सब जगह हाशिये पर हैं।’ हालांकि इसका अपराध बोध मुझे अब तक है कि मैंने उनके मर्म पर चोट क्यों की। तब जनेश्वर जी ने कहा था- मुझसे मेरी ही तस्वीर बता देने की आंच, जब तक तुम्हारे जैसे तमाम लोगों में बनी रहेगी, बेटा! मैं अप्रासंगिक नहीं हो सकता। मैंने तो अपना काम कर दिया और उसका असर दिख रहा है। क्या किसी को सच कहने और लड़ने के लिए पूरी तरह भरने का काम मैंने बंद कर दिया है।’ और यह कह कर उन्होंने अपनी पलकें फिर मूंद लीं जो तब समाजवादी आंदोलनों के एक झलक का बहुत असरदार आख्यान होने लगती थीं। लोग कहते थे और मेरा मित्र शशिभूषण(सिंह वह नहीं लिखता) भी कहता है- जाने क्यों बातचीत के दौरान वे अपनी आंखें बंद कर लेते थे- शायद आदत रही हो। लेकिन मैं जान गया था कि यह थोड़ी देर के लिए भीतर उतरने और कुछ बटोर लाने की एक प्रक्रिया थी। तभी तो जब पलकें खुलती थीं तो इतिहास की खिड़की की तरह। सुलगती- दहकती और कभी- कभी धुएं वाली तमाम कहानियों के कोलाज की तरह। दरअसल उनकी बंद पलकें ज्यादा ही घना संवाद बना लेती थीं- अगर सामने वाले में थोड़ी भी सुग्राहकता हो। यह उनकी तंद्रा नहीं। अति सक्रियता की स्थिति थी। जहां चुप्पी, हालात से लड़ने के और सांघातिक कोण या तर्क तलाश रही होती है। तब आलोड़न अधिक, आवाज कम होती है। उन्होंने फिर पलक खोली और वही अंदाज- क्या खाओगे?
इलाहाबाद में पत्थर से टकरा जाने के जुनून में वह विजय लक्ष्मी पंडित के खिलाफ चुनाव लड़ गये थे। यह चुनाव लड़ना ही नहीं, गरीब देश में अभिजन मिथ बन गये, एक परिवार को चुनौती देना था। 1977 में उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह को करारी शिकस्त दी। इलाहाबाद से चार बार सांसद रहे लेकिन सलेमपुर संसदीय क्षेत्र से चुनाव हार गये थे। उसके बाद से तो बूढ़े छोटे लोहिया की राजनीतिक सक्रियता के लिए थके और परिवेश से कटे लोगों की सुविधा वाला, पिछला दरवाजा- (मुलायम सिंह यादव की मेहरबानी से) ही बच गया था- राज्य सभा का। नहीं जानता कि उन्होंने कब दिल्ली के अपने आवास पर एक बड़ी सी होर्डिग लगवा दी थी- जिस पर लिखा था- लोहिया के लोग। मुझे कई बार यह लोहिया का आखेट करने जैसा लगता रहा है। जनेश्वर जी, खुद को डा. लोहिया का विस्तार या उनके कार्यो को आगे बढ़ाने वाले हरकारे में न बदल कर, उनके नाम की मचान बांध चुके थे और खुद को वहीं प्रतिष्ठित कर लिया था। (जबकि उनके रहते ही कुछ पत्रकारों ने चापलूसी भाव में मुलायम को ही लोहिया का लेनिन कहना शुरू कर दिया था)। क्या लोहिया होने के घटकों की अगर एक देह सोची जाये, तो वह जनेश्वर जी की इस बात से खुश हो सकती थी। वह अब केवल डा. लोहिया के भाष्यकार थे और कड़े शब्दों में एक महंथ। मुलायम सिंह को अपनी छवि के लिए अब जनेश्वर की दरकार थी और इस तरह राजनैतिक जलसों के लिए ही सही डा. लोहिया के आखेट का सिलसिला चलाते रहने का एक पाप भी जनेश्वर जी के माथे है। हम जैसे लोग चाहते तो यही थे कि जनेश्वर जी मूर्ति भंजक ही बने रहते और मठी स्थापनाओं के खिलाफ सिविल नाफरमानी का झंडा लिये वह अपने गुरू लोहिया से भी आगे निकल गये होते- लेकिन वह कर्महीन बौद्धिक हो चुके थे और यह भी कि लोहिया से लेकर रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर और विजयदेव नारायण शाही तक को समझने के विकसित नजरिये की खिड़की भी। इलाहाबाद से उनका बड़ा लगाव था और अंतिम सांस उन्होंने यहीं ली भी।
सलेमपुर से चुनाव हार कर लौट रहे जनेश्वर जी देवरिया रेलवे स्टेशन पर मिल गये थे। मेरे साथ धर्मेन्द्र पाण्डेय भी था। अब हम तीनों प्लेटफार्म नंबर एक की नंगी फर्श पर बैठकर सामने अखबार में रखा भूजा खा रहे थे- और ढलती शाम तक तेज हवा के बीच, हमारे चारो ओर लड़ाइयों- हार- जीत आदि के सामाजिक रसायनों से सनी एक नीली लौ चमक रही थी। कहानियां और बस कहानियां। कुछ चमकीली कुछ उदास।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दिनों में अपने बड़े भाई राजेन्द्र दुबे के सीनियर, प्रखर लोहियावादी बृजभूषण तिवारी के हवाले कहूं तो यह सच है कि लोहिया और जनेश्वर का साथ कुछ- कुछ कार्ल मार्क्स और एगिंल्स की तरह का रहा। और इस नजरिये से देखा जाये तो वह लोहिया के नाम की मचान बांध उनका राजनीतिक व्यवसाय नहीं कर रहे थे। एंगिल्स ने मार्क्स के बारे में कहा था- यह पहला दार्शनिक था जिसने दुनिया बदलने की कोशिश की। जनेश्वर जी भी खुद की ही बांधी लोहिया के मचान से देश को यही बता रहे थे कि लोहिया के न होने से लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को क्या क्षति पहुंची। जनेश्वर जी को सर्वेश्वर की – लोहिया के न रहने पर- शीर्षक से लिखी गयी कविता बहुत आवेशित करती थी। इतना तो मैं कह सकता हूं कि इन दो दस सालों के भीतर जब लोहिया के कुछ लुहार त्रिशूल गढ़ने में लग गये थे, कुछ तो ऐसी ही ताकतों का बैरिस्टर हो कर खप गये और उन्हें अब खुद को भी भूल जाने वाली बीमारी चांप चुकी है, जनेश्वर जी अकेले लोहियावादी थे- जो अपनी राह डटे रहे।
आपको याद होगा जब वह केन्द्र की सरकार में संचार मंत्री थे। उन दिनों मोबाइल तो क्या पेजर भी अभी नहीं आया था। गोरखपुर में मेरे आवास पर तब जमीन वाला ( लैंड लाइन) फोन भी नहीं था। पत्नी से बात करने के लिए पड़ोसी के घर फोन करना होता था। याद आता है आज हिन्दी पट्टी के पत्रकारों में बहुत उर्वर और सिद्ध कालमनिस्ट हो चुके अपने मित्र अनिल यादव के साथ मैं जब अयोध्या में बाबरी ध्वंस कवर करने गया था (दैनिक जागरण लखनऊ की ओर से), मुझे पत्रकारों की पिटाई के बीच अपने बच जाने की खबर गोरखपुर भेजने में कितनी दिक्कत उठानी पड़ी थी।
याद आता है जब मैं जनेश्वर जी के पास फोन के लिए कहने गया था- आपके अलावा उन्होंने पांच और फोन के लिए कह दिया था लेकिन तकरीबन एक घंटे का भाषण सुनाकर- कि अभी भी देश की बहुसंख्य आबादी तमाम बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित है और तुम लोगों को इस तरह की चीजों की कमी भी इतना परेशान करती है।
विष्णु जी, अभी तो बहुत लिखना है और आपसे वायदा किया है तो पूरा करूंगा। फिलहाल यह किश्त यही खत्म कर देता लेकिन मित्र शशि भूषण ने इस कंटेट मिस्त्री (अब मैं कापी राइटर हूं) को एक बहुत अच्छी बात याद दिला दी है। पटना में समाजवादी पार्टी का राजनैतिक सम्मेलन था। उसके पूरे कवरेज की जिम्मेदारी हमीं दोनों की थी। उसमें जनेश्वर जी आये थे। याद आता है मुलायम सिंह की मौजूदगी में ही उन्होंने मेरे अस्थिर चित्त को लेकर मुझसे ही कुछ शिकायत की। शशि को समझाया था- इससे पढ़ना- लिखना जरूर सीखना लेकिन इसके बहकावे में मत आना। शशि मुस्कराता रहा और उसने उनसे वायदा किया कि मैं एक अच्छे दोस्त की तरह ‘भाऊ’ की चौकसी करता रहूंगा। वह आश्वस्त हो गये थे। इसी सम्मेलन में उनके एक भाषण का अंश जस का तस प्रस्तुत है। इस भाषण के आलोक में आज की समाजवादी पार्टी की दशा- दिशा भी तलाश सकते हैं।
-‘ आज साम्प्रदायिकता और फासिज्म की मिलीजुली ताकत यानी भाजपा और कांग्रेस का सूरज मुलायम सिंह यादव के सिर पर चमक रहा है। दोपहरी की इस आततायी धूप में हो सकता है कि श्री यादव की परछाई छोटी पड़ जाये। कार्यकर्ताओं को वह जज्बा पैदा करना होगा कि ऐसे दो दर्जन सूरज ठीक सिर पर चमक कर भी सपा नेता के कद को छोटा न कर सकें।
लोहिया की सप्त क्रांति और जे.पी. की संपूर्ण क्रांति अभी बाकी है। नौजवानों तुम्हें नर-नारी समानता का अलख जगाये रखना होगा। एक ही कोख से पैदा हुए दो लोगों के बीच विषमता की यह खाई देश के माथे पर ही नहीं सभ्य समाज के लिये भी कलंक है। सम्मेलन का मकसद बिहार के सूखे मन समाजवादियों में नयी जान फूंकने का है। उस रस संचार का है जो देश में नयी दिप्ती पैदा कर सके। इसीलिये न भूलना कि यह सम्मेलन बिहार की जमीन पर वह ताल, पोखरे, बावडि़यां और नलकूप गाड़ देने का है जिससे समाजवाद की अविरल धारा प्रवाहित हो सके और समय की मार से मुरझा गये समाजवादी नई ऊर्जा पा सकें।
राजनीति में पूंजी का बोलबाला उसे पथभ्रष्ट करता है। फिर भी निवेश अगर विवशता ही हो तो देशी और विदेशी पूंजी में फर्क करना होगा। देशी पूंजी जहां विषमता बढ़ाती है, विदेशी पूंजी गुलाम बना देती है। यानी कि विदेशी पूंजी ज्यादा खतरनाक और सांघातिक हमले करती है। हमें ऐसी पूंजी के खिलाफ प्रतिबद्ध समाजवादियों की लौह दीवार खड़ी करनी होगी। हम देश में अब दर्जनों ईस्ट इण्डिया कम्पनी नहीं पनपने देंगे’
विष्णु जी, यह भाषण किसे लक्ष्य करता है और किसके लिए है आप बता सकेंगे?
Read Comments